साक्षी सिंह गोरखपुर के सूरजकुंड कोलोंगी की एक साधारण लड़की है। पिता राजेश्वर सिंह घर पर फल की दुकान चलते और माता सुनीता सिंह गृहणी है। पैसे की तंगी शुरू से ही होने की वजह से साक्षी का बचपन बेहद तंगी में बीता। शुरू से पढ़ने में अव्वल रही। स्कूल में सबकी चहेती साक्षी अपने कॉलेज के दिनो में अक्सर अपने पुरानी टूटी फूटी चीजों से कुछ ऐसा बनाकर लोगों को आश्चर्य में डाल देती थी। शौक अपनी चीज होती। साक्षी ने अपनी बीए की डिग्री पूरी करके इसी सोच को उद्यम का रूप देते की परिकल्पना की।
ऐसी परिकल्पना करना ही एक मध्यमवर्गीय सोच के ऊपर से गुजरता। वो कहते हैं न कि सपना देखने वाली आंखें ही उसके वास्तविक सुख को भोग पाती। बाकी लोग तो सुनकर ही संतोष पाते। साक्षी की डगर उतनी भी आसान नहीं थी जैसा उसने सोचा था ठीक वैसा ही हुआ। घर वालों नें नसीहत दी तो रिश्तेदारों नें ताने दिये। दोस्तों नें मज़ाक उड़ाया तो मोहल्ले वालों नें नुक्स निकाले।
घर वालों नें साथ नहीं दिया तो उसने अपना घर छोड़ देना उचित समझा। एक छोटे से क्वार्टर में गोरखपुर के शांतिपुरम मुहल्ले किराए पर रहना शुरू किया। वहाँ से उसने अपने उद्यम की आधारशिला रखी। सुबह छोटे बच्चो को ट्यूसन पढ़ाकर उसके जो पैसे इकट्ठे होते थे उससे उसने कुछ क्राफ्ट तैयार किए। उन क्राफ़्टों को शाम को जाकर अलीनगर, गोलघर व रेती के दुकानों में बेचना शुरू किया।
शुरू में सबने अपना पल्ला झाड़ा। पर किसी तरह एक दुकानदार ने कोई भी मुनाफा न देने पर तैयार हुआ। साक्षी की आँख में चमक थी और हौसलों में आग। वो दुष्यंत कुमार साहब का शेर हैं न।
कौन कहता है
आसमां में सुराख
नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो
तबियत से उछालो यारों।
- दुष्यंत कुमार
उनके शेर को चरितार्थ करती साक्षी नें ज़िंदगी में कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज उन्होने अपना क्राफ्ट हाउस खोला है। सुनीता क्रिएटर नाम से। यहाँ भी साक्षी नें अपनी माता जी के नाम से ही अपना काम शुरू किया। सुनीता क्रिएटर में साक्षी न सिर्फ अपने क्राफ्ट बेंचती है बल्कि अपने यहाँ लोगो को मुफ्त ट्रेनिंग भी देकर उन्हे रोजगार परख बनाती। आज उनके माता पिता ही नहीं बल्कि पूरे मुहल्ले वालों को भी साक्षी पर गर्व है। आज साक्षी केवल सुनीता सिंह की बेटी नहीं बल्कि पूरे मोहल्ले की बेटी है। हर माँ अपने घर में एक साक्षी ढूंढती है।
आप सबमे एक साक्षी है। जरूरत है उसे खोजने की।